जीवनी/आत्मकथा >> उत्ताल हवा उत्ताल हवातसलीमा नसरीन
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आत्मकथा का दूसरा खण्ड...
Uttal Hava
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सन् 1999 में प्रकाशित तसलीमा नसरीन की आत्मकथा का पहला खण्ड, आमार मेयेर बेला, ने बंगाली पाठकों और उसका हिन्दी अनुवाद, मेरे बचपन के दिन ने हिन्दी पाठकों का मन उत्ताल कर दिया था। आज यह पुस्तक अविस्मरणीय आत्मकथा के रूप में प्रतिष्ठित उत्ताल हवा, इस आत्मकथा का दूसरा खण्ड है। इस खण्ड में तसलीमा के 16 से 26 की उम्र तक की कहानी समेटी गई है। लेखिका ने अपनी कथा में असहनीय स्पष्टवादिता के साथ गहरे ममत्वबोध का एक हैरतंगेज संगम प्रस्तुत किया है। लेकिन अब तसलीमा और बड़ी और विराट होती जा रही है, अपनी चारो तरफ को जानने परखनेवाली नजर और ज्यादा तीखी होती गई है, तजुर्बों की परिधि और अधिक विस्तृत होती गई है। इसलिए, इस खंड में तसलीमा के असली तसलीमा बनने की गोपन कथा पाठकों के सामने काफी हद तक उजागर हो उठती है। एक अदद पिछड़ा हुआ समाज और दकियानूसी परिवार में पल-बढ़ कर बड़ी होती हुई लड़की, कैसे भयंकर कशमकश झेलती हुई धीरे-धीरे प्रचीनता के बंधन तोड़कर, असाधारण विश्वसनीयता के साथ खिल उठी है। उनका प्यार, प्यार के साथ सुख, दुःख, खुशी वेदना, रिश्तों के उठते गिरते, ऊँचे-नीचे झूमते अनिर्णित झूले में झूलता मन और अंत में एक उत्तरण पाठकों के लिए एक मर्मस्पर्शी घना विषाद भरा तजुर्बा शुरू से लेकर अंत तक काव्य-सुषमा से मंडित गद्य। गद्य के घुल-मिलकर एकाएक कविता, पाठकों के मन में भी दुकुल बहता हुआ।
उम्र
मैट्रिक परीक्षा का फॉर्म भरकर जमा कर देने के बाद, चार फुट एक इंच क़द, बिल्लौरी आँखोंवाली, ‘दि विंची’ मेरी बंगला टीचर, कल्यानी पाल ने ऐलान किया, ‘तुम परीक्षा नहीं दे सकतीं।’ वजह ? ‘तुम्हारी उम्र कम है। चौदह वर्ष की उम्र में परीक्षा में नहीं बैठा जा सकता; पन्द्रह साल चाहिए।’ अब अचानक पूरा एक साल कहाँ से जुगाड़ करूँ ? दिल बेहद उदास हो गया और मैं घर लौट आई, सबको बता दिया, ‘इस साल मेरा इम्तिहान देना गोल।’ क्यों ? गोल क्यों ? ‘उम्र कम है, इसलिए।’
‘उम्र ज़्यादा हो, तो सुनती हूँ, बहुत कुछ नहीं हो सकता, विश्वविद्यालय में भर्ती नहीं हुआ जा सकता, नौकरी-चाकरी नहीं मिलती !’
माँ सोच में पड़ गईं। हाँ शायद न होता हो, लेकिन मैट्रिक में उल्टा होता है—उम्र कम है, तो चलो, भागो, घर में बैठकर उम्र बढ़ाओ; सोलह की हो जाओ, तो आना, परीक्षा में बैठने।
शाम के वक्त अम्मी ने ईशा की नमाज़ पढ़ने के बाद, दो रकात् नफ़र की नमाज़ भी पढ़ डाली। अल्लाह के दरबार में सर ख़म किए, आँख से आँसू और नाक से पानी बहाते हुए इल्तिजा की—उनकी बेटी इस बार इम्तिहान नहीं दे पा रही है, लेकिन अल्लाताला अगर चाहें, तो उम्र की भयंकर मुसीबत से, उनकी बेटी को रिहाई दिला सकते हैं और अंदर-ही-अंदर परीक्षा दिलाकर चुपके-चुपके पास भी करा सकते हैं।
अल्लाताला ने मुझे कितनी रिहाई दिलाई, पता नहीं। लेकिन अब्बू ज़रूर सहाय हुए। अगले ही दिन मेरे स्कूल जाकर उन्होंने मेरे फॉर्म पर सन् बासठ काटकर, उस जगह ‘इकसठ’ बिठा दिया और मुझे हिदायत दे डाली कि अब से मेज़ के सामने, गोंद लगाकर कुर्सी से चिपक जाऊँ। अब से अड्डेबाज़ी और शरारत पूरी तरह से बंद करके, जमकर लिखाई-पढ़ाई किया करूँ और मैट्रिक में चार-चार लेटर लेकर, पहला दर्जा हासिल करूँ। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो सीधी-सी बात, वे घर से गर्दनिया देकर, निकाल बाहर करेंगे।
मेरी उम्र एक साल बढ़ानी पड़ी ! मैं कच्ची उम्र की नन्ही-मुन्नी, बड़ों के साथ बैठकर परीक्षा दूँगी, यह सोचकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।
मेरी वह ख़ुशी मिट्टी करते हुए, मेरे भाईजान ने कहा, ‘कउन बोला तोरा जनम सन बासठ में भया ?’
‘अब्बू ने कहा—’
‘धत्त ! अब्बू ने तोरी उमिर घटा कर लिखी थी।’
‘यानी इकसठ साल में ही मेरा जन्म हुआ !’
‘इकसठ नहीं, तोरा जनम साठ में भया था। हमका याद है, चौदह अगस्त को ! पाकिस्तान की जश्ने-आजादी के दिन ! हम सर्किट हाउस में फौजी सलामी देखने गए थे, उसके फौरन बाद ही, तू इस धरती पर आय धमका।’
छोटे भइया ने अपनी लुंगी की गाँठ लगाते-लगाते काले-काले मसूड़े झलकाते हुए कहा, ‘तुम भी न, क्या बात करते हो, उसका जनम साठ में कैसे होने लगा ? वह तो फिफ्टी नाइन में पैदा हुई है।’
मैं बुझ आई। मैंने जाकर अम्मी को पकड़ा, ‘मेरे जन्म का सही-सही साल बताओ न !’
अम्मी ने कहा, ‘रविउल अव्वल महीने की बारह तारीख को तू भई थी ! साल-बाल तो मुझे याद नहीं।’
‘यह सब...रविउल अव्वल स्कूल में नहीं चलता। अंग्रेजी साल बताओ।
‘इतने सालों बाद, बरस-तारीख भला याद रहता है ? जा, अपने बाप से पूछ ! शायद उनको याद हो।’
अब्बू के एनाटॅमी की किताब के पहले पन्ने पर दो जन्मतिथि लिखी हुई थीं। भाईजान की और छोटे भइया की ! मेरा और यास्मिन का जन्म कब, किस साल में, इसका कोई नामोनिशान, बारह सौ पन्नोंवाली, उस एनाटॅमी की किताब के किसी भी पन्ने पर, किसी भी ओने-कोने में दर्ज़ नहीं था। यहाँ तक कि घर के भी किसी ओने-कोने में, किसी फटे-चीथड़े टुकड़े भर कागज तक पर भी दर्ज़ नहीं है। अम्मी ईद के दिन पैदा हुई थीं, किसी छोटी ईद के दिन ! किस साल ? यह पता नहीं। अब्बू के जन्म-साल-तारीख के बारे में उनसे कोई सवाल किया जाए, इतना हिम्मतवर सीना, घर में आज तक किसी का भी नहीं हुआ !
जब मैं अपनी उम्र को लेकर भयंकर परेशान थी, दिन-दिन भर इसकी-उसकी उम्र के साथ जोड़-घटाव करके, अपनी उम्र निकालने में व्यस्त थी, भाईजान की उम्र में बारह साल जोड़ देने से, जो उम्र निकलती है, उस उम्र में, माँ की उम्र दस साल घटाने से, मेरी उम्र निकल सकती है, वगैरह-वगैरह, तब अम्मी ने कहा, ‘सुन, यह सब छोड़ लिखाई-पढ़ाई में मन लगा। उमिर पानी की बहती धार होती है। कुछ दिन पहले बालों की चुटइया बाँधे, दौड़-दौड़कर स्कूल जाती थी, और आज मेरे बेटा-बेटी बी.ए., एम.ए. पास कर रहे हैं।’
बहरहाल उम्र के बारे में अम्मी को कोई परवाह भले न हो, मुझे अलबत् थी। मेरे ननिहाल से, मेरे मामू, खाला, जब भी छुट्टियों में मेरे यहाँ आते, मैं उनसे भी पूछती रहती, वे लोग मेरे जन्म का साल जानते हैं या नहीं ! ना, कोई नहीं जानता था। किसी को याद ही नहीं ! जब मैं ननिहाल घूमने जाती, मैंने नानी को भी पकड़ा।
नानी ने चिलमची में पान की पीक थूककर कहा, ‘फेलू पैदा हुआ, सावन के महीने में, उसी साल तू भी पैदा हुई थी ! कार्तिक के महीने में !’
‘वह कौन-सा साल था ?’
‘कउन साल, कउन पैदा हुआ, इतना हिसाब-किताब कउन रखता था भला ? इस घर में साल-दर-साल छजड़ा-चझड़ी जन्म लेते थे। दो-एक बच्चे होते, तो साल-तारीख का भी हिसाब रहता—’
जन्म जैसी तुच्छ बात को लेकर मैं यूँ पीछे पड़ी हूँ, यह मामला फुर्सत पलों में सबको हताश करता था; ननिहाल के लोग भी मायूस थे। नानी को यह तो याद था कि जिस दिन मैं पैदा हुई थी, उस दिन नानू के पोखर में कोई मछली का चारा डाला गया था। रूनू खाला को भी यह याद है कि उस दिन टूटू मामू कमरे से दौड़कर, पेशाबखाना की तरफ़ जाते हुए, सीढ़ी पर फिसलकक धड़ाम से गिरा था ! लेकिन, वह कौन-सा साल था, यह याद नहीं ! हाशिम मामू को भी यह तो याद था कि उस दिन आँगन से चार-चार सोना-मेढक उठाकर, उन्होंने कुएँ में डाले थे, मगर उन्हें भी वह सन्, तारीख अब याद नहीं थी।
अपना जन्म-वर्ष जानने की इतनी तीखी चाह, पहले कभी नहीं जागी थी। अब्बू ने बासठ की जगह, इकसठ बिठाकर, इम्तहान का इंतज़ाम पक्का कर दिया था, यह सच है। अब कोई कमउम्री की शिकायत तो नहीं करेगा, इसलिए नो चिंता ! डू फुर्ती ! ऐश करो। अब अदरख-नमक खाकर, इत्मिनान से लिखाई-पढ़ाई में उतर जाने की फुर्ती आ गई। लेकिन मेरा मन उस अनजानी उम्र में ही अटका रहा, मानो मेरी उम्र, मुझसे मीलों-मील दूर है, जिससे मेरी भेंट होते-होते रह जाती, भेंट नहीं होती। हालाँकि उससे मेरी मुलाक़ात होना, बेहद-बेहद ज़रूरी था। जब मैंने विद्यामयी स्कूल में दाख़िला लिया ही था, उस वक्त भी मैंने अम्मी से अपनी उम्र पूछी थी, अम्मी ने सात साल बताई थी। नई क्लास में जाने के बाद फिर पूछा। उन्होंने फिर वही सात साल बताया।
‘क्यों, सात क्यों ? आठ साल हो गया न ?’
अम्मी ने मुझे आपादमस्तक घूरकर देखा और दोनों तरफ़ सिर हिलाकर जवाब दिया, ‘आठ ज़्यादा लागत है, सात ही होवेगा।’
अगले साल, उन्होंने मेरी उम्र ग्यारह बताई।
‘क्यों, ग्यारह क्यों ?’’
अम्मी की राय मुताबिक, चूँकि तब मैं ग्यारह साल की लगने लगी थी। इसलिए ! दिनोंदिन मैं केले के पेड़ की तरह लम्बी होती जा रही थी, इसलिए मुझे ग्यारह से कम, हरगिज नहीं कहा जा सकता था।
अम्मी से मेरी उम्र का अता-पता भले न मिले, मगर अब्बू से ज़रूर मिल जाएगा, इस क़िस्म का विश्वास मुझे उसी वक्त से था, क्योंकि अब्बू इस घर के सबसे विद्वान इंसान थे। वे सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे थे ! वे ज्ञान के आधार थे ! वे इस घर के कर्ता थे ! इसलिए ! अब्बू ने जब मेरी उम्र बताने की जगह—‘ना कह दिया, तो इसका मतलब ‘ना’ ही था। जाहिर था कि अब्बू ने भी मेरी उम्र का हिसाब नहीं रखा। अगर मेरी उम्र का विवरण उनके पास होता, तो वे अपनी एनाटॅमी की किताब के पन्ने में भाईजान और छोटे भइया की जन्मतिथि की बगल में मेरी भी तारीख लिख रखते। लेकिन, नहीं लिखा था ! नहीं ! नहीं ! यह ‘नहीं’ दिन-दिन भर मुझे घेरे रहता। यह ‘नहीं’ मुझे बरामदे में उदास बिठाए रखता। यह ‘नहीं’ आँगन बुहारती हुई जरी की माँ की उम्र दरयाफ़्त करने की कोशिश करती रही।
मेरा सवाल सुनकर, जरी की माँ अपनी अकड़ी हुई कमर सीधी करते हुए उठ खड़ी हुई। यूँ एकाध पल को कमर सीधी करना ही मानो उसका दिन-भर का आराम था।
सवाल का जवाब देने से पहले, कुछ सोचते हुए उसने आसमान की तरफ़ देखा। सोच के ये सिर्फ़ एकाध पल ही मानो उसके अपने हों। सोच लेने के बाद, उसने अपनी आँखें आसमान से नीचे उतारीं और उकड़ूँ होकर बैठते हुए, उसके हाथ फिर झाड़ू-बुहारने में जुट गए।
उसने गर्दन हिलाकर बताया, ‘उन्नीस !’
शाम की ढलती रोशनी आँगन के और जरी की माँ के तन पर, मानो हौले-हौले उँगलियाँ फेर रही हो।
अम्मी बरामदे में आकर बैठ गईं। जवाब में जरी की माँ का उन्नीस साल उम्र बताना, मानो मुझे पसन्द नहीं आया। मैंने दुबारा अम्मी से जरी की माँ की उम्र पूछी।
‘चालीस-बयालीस तो ज़रूर होवेगा।’ अम्मी ने तिरछी निगाहों से जरी की माँ के झूले हुए तन और लटकती हुई छाती की तरफ़ देखते हुए कहा, ‘पैंतालीस भी हो सकत है।’
‘जरी की उम्र कितनी है, जरी की माँ ?’
जरी की उम्र बताते हुए, इस बार भी जरी की माँ कमर सीधी करके खड़ी हो गई।
अम्मी ने उसे डपटते हुए कहा, ‘जल्दी-जल्दी हाथ चला। अँगना में झाड़ू लगाकर, झटपट खाय जाओ। खाकर बर्तन माँज-धोकर राती के लिए भात चढ़ाय दो।’
हमारा दोपहर का खाना, दोपहर को ही निपट गया। सिर्फ़ जरी की माँ ही बच रही। सिर्फ़ जरी की मां के लिए ही यह नियम-सबको खिला-पिलाकर, बर्तन माँजने, घर-द्वार धोने-पोंछने और आँगन में झाड़ू लगाने के बाद ही उसे खाना नसीब होता था।
जरी की उम्र तक के बारे में सोचते हुए, उसकी माँ को आकाश की तरफ़ देखना पड़ता था। ललछौंहें आसमान भर में पंछियों का झुंड उड़ान भरते हुए, घोंसलों की तरफ़ जाता हुआ ! जरी की माँ का अपनी जरी को लेकर, कभी, किसी नीड़ की तरफ़ लौटना नहीं हुआ। जरी के जन्म के बाद से ही, इस-उस घर के बँधे कामकाज में बँधी पड़ी थी।
‘अउर कित्ता होवेगा ? यही कोई बारह ! क्यों, खाला, बारह की होवेगी न जरी की उमिर ?’ जरी की माँ ने असहाय नज़रों से अम्मी की तरफ़ देखा।
‘बारह ? का कहती हो, जी ? चौदह-पन्द्रह की लागत है।’
अम्मी को नहीं मालूम कि जरी कब पैदा हुई। अम्मी ने जरी की पैदाइश नहीं देखी। कुल दो साल पहले, जरी की माँ जरी को लेकर इस घर में आई थी। जरी की माँ को यहाँ टिकाकर, अम्मी, फाइ-फर्माइश पूरा करने के लिए, जरी को नानी के यहाँ दे आई थी। उम्र के बारे में अम्मी जी कहती थी, वह सिर्फ़ अंदाज़ से ! असल में, अम्मी बदन-काठी देखकर उम्र का अंदाज़ा लगाती थी। अम्मी का यह अंदाज़ा जरी की माँ ने ख़ुशी-ख़ुशी मान लिया। जरी की माँ ने समझ लिया, जरी की उम्र अब से चौदह-पन्द्रह और उसकी अपनी चालीस-बयालीस या पैंतालीस।
जरी की माँ, आँगन में बिखरे हुए झरे पत्ते, झरी डालें, झरे पंख इकट्ठे करके, पोखर किनारे के मलवे के ढेर में उड़ेल आई। जब वह बावर्चीखाने में कुप्पी जलाकर, भात और बैंगन की तरकारी खा रही थी, अम्मी बरामदे में बैठी-बैठी, उदास आँखों से बत्तख-मुर्गियों को दरबे में लौटते हुए देखती रही। अम्मी के पैरों के करीब, मैं सीढ़ी पर पैर फैलाए बैठी थी। सिर के ऊपर चक्राकार तूफानी हवा खाती हुई, सांध्योत्सव में नृत्यरत मच्छरों का संगीत और डॉली पाल के घर से तैरकर आती हुई उलू ध्वनि सुनते-सुनते, यह देखती रही कि किस तरह थकी-उदास किशोरी के भीगे बालों से टप्-टप् झरती बूँदों की तरह, आकाश से अँधेरा, हमारे बुहारे हुए कच्चे आँगन पर झर रहा था।
टिन के घर के पिछवाड़े, सागौन के पेड़ की तरफ़ टकटकी बाँधे देखते हुए, मैंने महीन आवाज़ में दरयाफ़्त किया, ‘इस सागौन के पेड़ की उम्र कितनी है, अम्मी ?’
बेहद अद्भुत नज़रों से उस पेड़ को देखते हुए, अम्मी ने जवाब दिया, ‘‘मेरे खियाल से तीन सौ बरिस !’
‘इंसान क्यों नहीं तीन सौ साल तक जिंदा रहता, अम्मी ?’
माँ ने कोई जवाब नहीं दिया।
मैं अम्मी की तरफ़ मुख़ातिब हुई। निःशब्द जल पर पड़ते हुए गांगचील की तरह, अम्मी का चेहरा, मुझे साफ़ नज़र नहीं आया। चमगादड़ के पंख की तरह, कोई अँधेरा उड़कर आया और उसने झटपट अम्मी का चेहरा ढँक लिया।
उम्र की यह फिक्र, मुझे छोड़कर, कभी एक क़दम भी टस-से-मस नहीं हुई। मैट्रिक के फॉर्म में भरी गई तारीख की तरह, अचानक मेरे मन में, अपने जन्मदिन की तारीख गढ़ लेने की चाह जाग उठी। शुक्र है कि उन दिनों अब्बू का मन-मिज़ाज़ ठीक था। इसलिए फर्माइश करने भर की देर थी, घर में एक केक, टोकरी भर मलाई-करी, एक पैकेट दालमोठ, एक पाउंड मीठे बिस्कुट, दर्जन भर सन्तरे मँगा लिए गए। शाम को जो लोग घर में मौजूद थे और अपने एकमात्र अनमोल धन के तौर पर, सिर्फ़ एक मेहमान, चंदना के सामने, फूँक मारकर, मैंने मोमबत्ती बुझाई। घर में छुरी नहीं थी, अब क्या करूँ ? बावर्चीखाने में काफी ढूँढ़-ढाँढ़कर, कुर्बानी की गाय काटनेवाला, लम्बा छुरा उठा लाई और एक पाउंड की केक काटी। केक का पहला टुकड़ा मेरे मुँह में कौन डालेगा, गीता या यास्मिन ? यास्मिन ने कहा, वह खिलाएगी; गीता ने कहा, वह खिलाएगी। गीता आगे बढ़ आई। चूँकि गीता इस ‘घर की बहू’ थी, इसलिए घर की बहू के साध-आह्लाद का मोल, यास्मिन के साध-आह्लाद से कहीं ज़्यादा था, यास्मिन मुँह फुलाकर केक के सामने से हट गई और कैमरे की रोशनी चमकने से पहले, अपने चेहरे पर मीठी-सी मुस्कान झुलाकर, गीता ने मेरे मुँह में केक का एक टुकड़ा ठूँस दिया। उसकी आँखें कैमरे पर ही लगी हुई थीं। इस तरह केक काटकर, ताली बजाकर, कैमरे की क्लिक ! और मलाई-करी की तरी में बिस्कुट डुबाकर, जुबान से केक की सफ़ेद क्रीम चाटते हुए, जन्मदिन सम्पन्न हुआ। इस घर में पहली बार किसी का जन्मदिन मनाया गया था, वह भी मेरा जन्मदिन। मेरी ही कोशिशों से।
चंदना ने उपहार में तीन काव्य-संग्रह दिए—‘राजा आए, राजा आए’, ‘अदिगंत नग्न पगध्वनि’ और ‘न प्रेमी, न विप्लवी।’ भाईजान ने रवीन्द्रनाथ का ‘गल्पगुच्छ’ दिया। जिन्दगी में पहली बार मुझे अपने जन्मदिन पर, कोई भेंट नसीब हुई। उन किताबों से न हाथ हट पा रहे थे, न आँखें, न मन !
काफी रात गए, अम्मी ने कहा, ‘मिठाई का एकाध टुकड़ा तोड़कर, जरी की माँ के हाथ पर भी धर देती तो भला होता। बिचारी ने कउनो दिन मिठाई नहीं खाई। बिचारी ऊ भी स्वाद चख लेती कि खाने में कइसी लागत है !’
अचानक मुझे ख्याल आया, सिर्फ़ जरी की माँ ही नहीं, अम्मी के हिस्से में भी जन्मदिन का खाना नहीं जुटा। हालाँकि अम्मी ने तसल्ली दी कि यह सब खाए बिना भी उसका काम चल जाता है।
कभी-कभार बिस्कुट का एक टुकड़ा या मुट्ठी-भर दालमोठ अम्मी की तरफ़ बढ़ाते ही, अम्मी कहतीं, ‘हम तो भात ही खावत हैं। तुम लोगन बाल-बच्चे हो, तुम्हीं लोग खाओ। चिरैया के बच्चे जइसे तो भात चुगते हो तुम सबन, सो थोड़ा-बहुत ई-ऊ खावे चाही।’
मुझे जन्मदिन मनाते देखकर, यास्मिन को भी अपना जन्मदिन मनाने का खासा शौक हो आया। उसका जन्मदिन किस महीने में, किस तारीख को हुआ था, यह जानने के लिए उसने अब्बू को पकड़ा। अब्बू भी उसे आज-कल पर टालते रहे, यास्मिन भी भूली रही। करीब दो महीने तक उसे भुलाए रखने के बाद, आखिर एक दिन अब्बू ने कह दिया—नौ सितंबर ! बस्स, सितंबर की नौ तारीख आने से पहले, यास्मीन ने अब्बू को एक लम्बी-सी फेहरिश्त भेज दी—तीन क़िस्म के फल और दो क़िस्म की मिठाइयाँ ! साथ में दालमोठ और बिस्कुट ! उसने स्कूल की प्रायः सभी लड़कियों को दावत दे डाली।
फेहरिश्त पाकर, अब्बू ने कहा, ‘‘जन्मदिन किस बात का ? जन्म दिन-टन्मदिन मनाने की कोई ज़रूरत नहीं। लिखाई-पढ़ाई करके, इंसान बनो। मेरे घर में किसी क़िस्म का उत्सव न मनाया जाए।’
अम्मी ने अकेले में, उनके सामने मिन्नतों की टोकरी उलटते हुए कहा, ‘बच्ची जन्मदिन मनाना चाहत है। मनाने दें न ! बेटियाँ घर की लछमी होत हैं। उनको ‘मार-मार’ कर रखना ठीक नाहीं है। आखिर उन सबन को भी तो शौक-चाव होत है। बिटिया ने फरमाइश की है ओकी फरमाइश रख लें।’
अम्मी ने इधर काफी दिनों से उन्हें ‘आप’ कहना शुरू कर दिया था। यह ‘तुम से ‘आप’ में उतरने-चढ़ने की ऐसी कई वजहें हैं, जिनकी वजह से अम्मी का यह संबोधन सुनकर, अब जैसे अब्बू को हैरत नहीं होती, हमें भी नहीं। लेकिन ‘तुम’ या ‘आप’ जैसे लघु या गुरु स्वर में, रोकर या हँसकर, अम्मी चाहे जितनी भी मिन्नतें क्यों न करें, उनकी मिन्नतों का मूल्य अब्बू के आगे रत्ती भर भी नहीं है। यह बात अब्बू भी बख़ूबी जानते थे और अम्मी भी !
‘आज से यह फुर्ती-टुर्ती बाद दो। बेटी नाच रही है, संग-संग गाय भी नचनिया बन गई है। फिजूल का बंदरिया-नाच।’
अब्बू की भृकुटी देखकर अम्मी सहम गईं। अब्बू की सर्दी खाई देह पर, लहसुन तेल से मालिश करते-करते, वे आरजू-मिन्नत में लगी रहीं।
‘बेटियाँ तो ब्याहकर, पराए घर चली जात हैं। उनका साध-आह्लाद बाप के घर ही तो पूरन होत है।’
लेकिन लहसुन तेल से अब्बू की खाल भले नरम हुई हो, मन नरम नहीं हुआ। यास्मिन भी मन अँधेरा किए बैठी रही। आखिरकार जन्मदिन का जश्न नहीं मनाया जा रहा था। लेकिन घरवालों को अचरज में डालते हुए, अब्बू ने उसी दिन दोपहर को फेहरिश्त मुताबिक खाना वगैरह भेज दिया। बेटी खुशी से नाच उठी। तश्तरी में खाना सजाकर, खुद सज-धजकर, वह काले फाटक की तरफ़ नज़रें गड़ाए, मेहमानों के इंतज़ार में, सारी शाम बैठी रही। जब कोई नहीं आया, तो यास्मिन ने आखिरकार, शाम को मैदान में खेलने आईं, गुल्लाछूट खेल की तीन सहेलियों को अपने यहाँ बुलाकर, जन्मदिन का खाना खिलाया।
शाम को घर लौटकर ऐसा लज़ीज़ खाना देखकर छोटे भइया दंग रह गए, ‘क्या, रे, किस बात का जशन है आज ?’
यास्मिन ने लजाधुर-सी मुस्कान बिखरेते हुए कहा, ‘मेरी सालगिरह है।’
‘किन्ने कहा, इस तारीख को तोरा जनम भया ?’
‘अब्बू ने कहा।’
अब्बू का नाम लेते ही, किसी की जुबान से ‘टूँ’ शब्द निकालने का भी हौसला नहीं हुआ, क्योंकि घरवाले जानते थे कि अब्बू जो कहते थे, वह पत्थर की लकीर होती थी ! बिल्कुल सच ! क्योंकि अब्बू से बढ़कर ज्ञान-बुद्धि और किसी के पास नहीं थी।
‘हाँ, हाँ, समझ गया। एक जन्मदिन की ज़रूरत होत है। सो तुझे भी जन्मदिन मनाने का शौक चर्राया और अब्बू ने भी गढ़कर बता दिया।
छोटे भइया का दुस्साहस देखकर यास्मिन सन्न रह गई।
उस दिन भी जिसके हिस्से में यास्मिन के जन्मदिन का एकाध टुकड़ा भी नहीं आया वह अम्मी थीं। अम्मी उस दिन दोपहर-बाद ही घर से निकल गईं, लौटते-लौटते शाम हो गई। उनके हाथ में बादामी कागज का एक पैकेट ! पैकेट के अंदर यास्मिन के लिए लाल रंग की फ्रॉक का कपड़ा। अम्मी खुद ही उसके लिए चुन्नटदार फ्रॉक तैयार कर देंगी। उनके हाथ में पैसे नहीं थे, इसलिए हाशिम मामू से रुपये उधार लेकर, वे ख़ुद गौरहरि वस्त्रालय गईं और तीन गज कपड़ा खरीद लाईं।
मैं हाय-हाय कर उठी, ‘लेकिन, आज तो उसका जन्मदिन नहीं है—
‘कउन बोला, आज ओका जन्मदिन नाही है ?’
‘छोटे भाईजान ने—’
‘इससे का भया ?’ अम्मी ने डपट दिया, ‘जन्मदिन न सही, ज़रा ख़ुशी मनाना चाहत है बिटिया, मनावन दो।’
ईद के त्यौहार के अलावा, और कभी हमें नई फ्रॉक नसीब नहीं हुई। साल में सिर्फ़ एक बार ही अब्बू हमारे लिए कपड़े लाते थे—वह थी—छोटी ईद ! छोटी ईद पर आए कपड़े अगला साल आते-आते तक या तो फट-फटा जाते थे या छोटे हो जाते थे।
अब्बू से नई फ्रॉक की फर्माइश करते ही, वे दाँत पीसकर चपट देते, ‘दो-दो फ्रॉक धरा है न ? एक पहना कर, जब मैली हो जाए; तो धो-फींचकर, दूसरी फ्रॉक पहन लिया कर। दो से ज़्यादा फ्रॉक की कोई ज़रूरत नहीं है।’
अम्मी हमारी फटी या छोटी हो आई फ्रॉक में, साड़ी की किनारी या कोई और टुकड़ा जोड़कर, बड़ी कर देतीं; फटी जगह सिलाई करके, दुरुस्त कर देतीं। स्कूल की लड़कियों के पास घर और बाहर पहनने के लिए, अलग-अलग, दो क़िस्म के कपड़े होते थे।
किसी दिन, किसी ईद की फ्रॉक, बाहर पहनने के लिए अगर सहेज कर रख दी जाती और घर में पहनने लायक फ्रॉक की माँग की जाती, तो अब्बू घुड़क देते, ‘बाहर जाने की तुमका ज़रूरत का है ? घर के बाहर अगर कहीं जाना है, तो बस, इस्कूल तक ! और इस्कूल के लिए यूनीफारम है न !’
स्कूल में अगर कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होता या पिकनिक पर जाना होता, तो लड़कियों को यह आज़ादी दी जाती थी कि वे यूनीफॉर्म की जगह, दूसरी फ्रॉक पहनकर जाएँ। लड़कियाँ उन कार्यक्रमों में तरह-तरह की पोशाकें पहनकर जाती थीं, लेकिन मैं हर कार्यक्रम में, बस, वही एक फ्रॉक पहनकर जाती थी।
मेरी क्लास की एक लड़की ने एक बार मुझसे सवाल भी किया, ‘तुम्हारे पास क्या और कोई फ्रॉक नहीं है ?’
उस दिन मुझे इतनी शर्म आई थी कि मैं दौड़कर, एक बड़े-से खम्भे की आड़ में काफी देर तक छिपी रही। स्कूल का यूनीफॉर्म बनाने के लिए अब्बू ने कभी मना नहीं किया। वे ख़ुद हमारे साथ गौरहरि वस्त्रालय जाकर कपड़े खरीदते थे; गांगिना किनारे के दर्जी की दुकान पर नाप दिलाने ले जाते थे। दर्जी जब बदन का नाप लिखता, वे दर्जी को बार-बार आगाह करते, यूनीफॉर्म ज़रा बड़ी माप का बनाएँ, ताकि ज़्यादा दिन तक चले।
जूते की दुकान पर भी अब्बू कहते, ‘इन लड़कियों के पैर के जूते तो दिखाएँ। जूते ज़रा बड़े हों, जो ज़्यादा दिन चलें।’
नाप से बड़े-बड़े कपड़े-जूते पहनने के बावजूद, हमारे कपड़े-जूते बहुत जल्दी ही छोटे हो जाते।
अम्मी कहती थीं, ‘फिराक मा जूता छोटा नहीं होता, तू लोगन हुंड़ार हुई जा रही है।’
हमारा तन-बदन चूँकि बढ़ने लगा था, मुझे हर वक्त डर लगा रहता था, अब्बू खफ़ा होंगे। ढाका विश्वविद्यालय में पढ़ाई के जमाने में, भाईजान ने अपने जेब-खर्च के रुपए बचाकर, मेरे और यास्मिन के लिए दो रेशमी फ्रॉकें खरीद दी थीं। फुटपाथ से खरीदी हुई विदेशी, पुरानी फ्रॉक ! ‘लॉन्डि’ का सस्ता माल। वह पाकर भी, हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था।
अम्मी का खरीदा हुआ लाल कपड़ा, बदन पर लपेटकर, यास्मिन जब महा-उल्लास से घर-भर में नाचती-कूदती फिरी, अम्मी अँधेरे बरामदे में अपने बाल छितराए, कमरे की उजली-रोशनी में लाल, सुर्ख यास्मिन को निहारती रहीं। लाल फ्रॉक में वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी।
‘उम्र ज़्यादा हो, तो सुनती हूँ, बहुत कुछ नहीं हो सकता, विश्वविद्यालय में भर्ती नहीं हुआ जा सकता, नौकरी-चाकरी नहीं मिलती !’
माँ सोच में पड़ गईं। हाँ शायद न होता हो, लेकिन मैट्रिक में उल्टा होता है—उम्र कम है, तो चलो, भागो, घर में बैठकर उम्र बढ़ाओ; सोलह की हो जाओ, तो आना, परीक्षा में बैठने।
शाम के वक्त अम्मी ने ईशा की नमाज़ पढ़ने के बाद, दो रकात् नफ़र की नमाज़ भी पढ़ डाली। अल्लाह के दरबार में सर ख़म किए, आँख से आँसू और नाक से पानी बहाते हुए इल्तिजा की—उनकी बेटी इस बार इम्तिहान नहीं दे पा रही है, लेकिन अल्लाताला अगर चाहें, तो उम्र की भयंकर मुसीबत से, उनकी बेटी को रिहाई दिला सकते हैं और अंदर-ही-अंदर परीक्षा दिलाकर चुपके-चुपके पास भी करा सकते हैं।
अल्लाताला ने मुझे कितनी रिहाई दिलाई, पता नहीं। लेकिन अब्बू ज़रूर सहाय हुए। अगले ही दिन मेरे स्कूल जाकर उन्होंने मेरे फॉर्म पर सन् बासठ काटकर, उस जगह ‘इकसठ’ बिठा दिया और मुझे हिदायत दे डाली कि अब से मेज़ के सामने, गोंद लगाकर कुर्सी से चिपक जाऊँ। अब से अड्डेबाज़ी और शरारत पूरी तरह से बंद करके, जमकर लिखाई-पढ़ाई किया करूँ और मैट्रिक में चार-चार लेटर लेकर, पहला दर्जा हासिल करूँ। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो सीधी-सी बात, वे घर से गर्दनिया देकर, निकाल बाहर करेंगे।
मेरी उम्र एक साल बढ़ानी पड़ी ! मैं कच्ची उम्र की नन्ही-मुन्नी, बड़ों के साथ बैठकर परीक्षा दूँगी, यह सोचकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा।
मेरी वह ख़ुशी मिट्टी करते हुए, मेरे भाईजान ने कहा, ‘कउन बोला तोरा जनम सन बासठ में भया ?’
‘अब्बू ने कहा—’
‘धत्त ! अब्बू ने तोरी उमिर घटा कर लिखी थी।’
‘यानी इकसठ साल में ही मेरा जन्म हुआ !’
‘इकसठ नहीं, तोरा जनम साठ में भया था। हमका याद है, चौदह अगस्त को ! पाकिस्तान की जश्ने-आजादी के दिन ! हम सर्किट हाउस में फौजी सलामी देखने गए थे, उसके फौरन बाद ही, तू इस धरती पर आय धमका।’
छोटे भइया ने अपनी लुंगी की गाँठ लगाते-लगाते काले-काले मसूड़े झलकाते हुए कहा, ‘तुम भी न, क्या बात करते हो, उसका जनम साठ में कैसे होने लगा ? वह तो फिफ्टी नाइन में पैदा हुई है।’
मैं बुझ आई। मैंने जाकर अम्मी को पकड़ा, ‘मेरे जन्म का सही-सही साल बताओ न !’
अम्मी ने कहा, ‘रविउल अव्वल महीने की बारह तारीख को तू भई थी ! साल-बाल तो मुझे याद नहीं।’
‘यह सब...रविउल अव्वल स्कूल में नहीं चलता। अंग्रेजी साल बताओ।
‘इतने सालों बाद, बरस-तारीख भला याद रहता है ? जा, अपने बाप से पूछ ! शायद उनको याद हो।’
अब्बू के एनाटॅमी की किताब के पहले पन्ने पर दो जन्मतिथि लिखी हुई थीं। भाईजान की और छोटे भइया की ! मेरा और यास्मिन का जन्म कब, किस साल में, इसका कोई नामोनिशान, बारह सौ पन्नोंवाली, उस एनाटॅमी की किताब के किसी भी पन्ने पर, किसी भी ओने-कोने में दर्ज़ नहीं था। यहाँ तक कि घर के भी किसी ओने-कोने में, किसी फटे-चीथड़े टुकड़े भर कागज तक पर भी दर्ज़ नहीं है। अम्मी ईद के दिन पैदा हुई थीं, किसी छोटी ईद के दिन ! किस साल ? यह पता नहीं। अब्बू के जन्म-साल-तारीख के बारे में उनसे कोई सवाल किया जाए, इतना हिम्मतवर सीना, घर में आज तक किसी का भी नहीं हुआ !
जब मैं अपनी उम्र को लेकर भयंकर परेशान थी, दिन-दिन भर इसकी-उसकी उम्र के साथ जोड़-घटाव करके, अपनी उम्र निकालने में व्यस्त थी, भाईजान की उम्र में बारह साल जोड़ देने से, जो उम्र निकलती है, उस उम्र में, माँ की उम्र दस साल घटाने से, मेरी उम्र निकल सकती है, वगैरह-वगैरह, तब अम्मी ने कहा, ‘सुन, यह सब छोड़ लिखाई-पढ़ाई में मन लगा। उमिर पानी की बहती धार होती है। कुछ दिन पहले बालों की चुटइया बाँधे, दौड़-दौड़कर स्कूल जाती थी, और आज मेरे बेटा-बेटी बी.ए., एम.ए. पास कर रहे हैं।’
बहरहाल उम्र के बारे में अम्मी को कोई परवाह भले न हो, मुझे अलबत् थी। मेरे ननिहाल से, मेरे मामू, खाला, जब भी छुट्टियों में मेरे यहाँ आते, मैं उनसे भी पूछती रहती, वे लोग मेरे जन्म का साल जानते हैं या नहीं ! ना, कोई नहीं जानता था। किसी को याद ही नहीं ! जब मैं ननिहाल घूमने जाती, मैंने नानी को भी पकड़ा।
नानी ने चिलमची में पान की पीक थूककर कहा, ‘फेलू पैदा हुआ, सावन के महीने में, उसी साल तू भी पैदा हुई थी ! कार्तिक के महीने में !’
‘वह कौन-सा साल था ?’
‘कउन साल, कउन पैदा हुआ, इतना हिसाब-किताब कउन रखता था भला ? इस घर में साल-दर-साल छजड़ा-चझड़ी जन्म लेते थे। दो-एक बच्चे होते, तो साल-तारीख का भी हिसाब रहता—’
जन्म जैसी तुच्छ बात को लेकर मैं यूँ पीछे पड़ी हूँ, यह मामला फुर्सत पलों में सबको हताश करता था; ननिहाल के लोग भी मायूस थे। नानी को यह तो याद था कि जिस दिन मैं पैदा हुई थी, उस दिन नानू के पोखर में कोई मछली का चारा डाला गया था। रूनू खाला को भी यह याद है कि उस दिन टूटू मामू कमरे से दौड़कर, पेशाबखाना की तरफ़ जाते हुए, सीढ़ी पर फिसलकक धड़ाम से गिरा था ! लेकिन, वह कौन-सा साल था, यह याद नहीं ! हाशिम मामू को भी यह तो याद था कि उस दिन आँगन से चार-चार सोना-मेढक उठाकर, उन्होंने कुएँ में डाले थे, मगर उन्हें भी वह सन्, तारीख अब याद नहीं थी।
अपना जन्म-वर्ष जानने की इतनी तीखी चाह, पहले कभी नहीं जागी थी। अब्बू ने बासठ की जगह, इकसठ बिठाकर, इम्तहान का इंतज़ाम पक्का कर दिया था, यह सच है। अब कोई कमउम्री की शिकायत तो नहीं करेगा, इसलिए नो चिंता ! डू फुर्ती ! ऐश करो। अब अदरख-नमक खाकर, इत्मिनान से लिखाई-पढ़ाई में उतर जाने की फुर्ती आ गई। लेकिन मेरा मन उस अनजानी उम्र में ही अटका रहा, मानो मेरी उम्र, मुझसे मीलों-मील दूर है, जिससे मेरी भेंट होते-होते रह जाती, भेंट नहीं होती। हालाँकि उससे मेरी मुलाक़ात होना, बेहद-बेहद ज़रूरी था। जब मैंने विद्यामयी स्कूल में दाख़िला लिया ही था, उस वक्त भी मैंने अम्मी से अपनी उम्र पूछी थी, अम्मी ने सात साल बताई थी। नई क्लास में जाने के बाद फिर पूछा। उन्होंने फिर वही सात साल बताया।
‘क्यों, सात क्यों ? आठ साल हो गया न ?’
अम्मी ने मुझे आपादमस्तक घूरकर देखा और दोनों तरफ़ सिर हिलाकर जवाब दिया, ‘आठ ज़्यादा लागत है, सात ही होवेगा।’
अगले साल, उन्होंने मेरी उम्र ग्यारह बताई।
‘क्यों, ग्यारह क्यों ?’’
अम्मी की राय मुताबिक, चूँकि तब मैं ग्यारह साल की लगने लगी थी। इसलिए ! दिनोंदिन मैं केले के पेड़ की तरह लम्बी होती जा रही थी, इसलिए मुझे ग्यारह से कम, हरगिज नहीं कहा जा सकता था।
अम्मी से मेरी उम्र का अता-पता भले न मिले, मगर अब्बू से ज़रूर मिल जाएगा, इस क़िस्म का विश्वास मुझे उसी वक्त से था, क्योंकि अब्बू इस घर के सबसे विद्वान इंसान थे। वे सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे थे ! वे ज्ञान के आधार थे ! वे इस घर के कर्ता थे ! इसलिए ! अब्बू ने जब मेरी उम्र बताने की जगह—‘ना कह दिया, तो इसका मतलब ‘ना’ ही था। जाहिर था कि अब्बू ने भी मेरी उम्र का हिसाब नहीं रखा। अगर मेरी उम्र का विवरण उनके पास होता, तो वे अपनी एनाटॅमी की किताब के पन्ने में भाईजान और छोटे भइया की जन्मतिथि की बगल में मेरी भी तारीख लिख रखते। लेकिन, नहीं लिखा था ! नहीं ! नहीं ! यह ‘नहीं’ दिन-दिन भर मुझे घेरे रहता। यह ‘नहीं’ मुझे बरामदे में उदास बिठाए रखता। यह ‘नहीं’ आँगन बुहारती हुई जरी की माँ की उम्र दरयाफ़्त करने की कोशिश करती रही।
मेरा सवाल सुनकर, जरी की माँ अपनी अकड़ी हुई कमर सीधी करते हुए उठ खड़ी हुई। यूँ एकाध पल को कमर सीधी करना ही मानो उसका दिन-भर का आराम था।
सवाल का जवाब देने से पहले, कुछ सोचते हुए उसने आसमान की तरफ़ देखा। सोच के ये सिर्फ़ एकाध पल ही मानो उसके अपने हों। सोच लेने के बाद, उसने अपनी आँखें आसमान से नीचे उतारीं और उकड़ूँ होकर बैठते हुए, उसके हाथ फिर झाड़ू-बुहारने में जुट गए।
उसने गर्दन हिलाकर बताया, ‘उन्नीस !’
शाम की ढलती रोशनी आँगन के और जरी की माँ के तन पर, मानो हौले-हौले उँगलियाँ फेर रही हो।
अम्मी बरामदे में आकर बैठ गईं। जवाब में जरी की माँ का उन्नीस साल उम्र बताना, मानो मुझे पसन्द नहीं आया। मैंने दुबारा अम्मी से जरी की माँ की उम्र पूछी।
‘चालीस-बयालीस तो ज़रूर होवेगा।’ अम्मी ने तिरछी निगाहों से जरी की माँ के झूले हुए तन और लटकती हुई छाती की तरफ़ देखते हुए कहा, ‘पैंतालीस भी हो सकत है।’
‘जरी की उम्र कितनी है, जरी की माँ ?’
जरी की उम्र बताते हुए, इस बार भी जरी की माँ कमर सीधी करके खड़ी हो गई।
अम्मी ने उसे डपटते हुए कहा, ‘जल्दी-जल्दी हाथ चला। अँगना में झाड़ू लगाकर, झटपट खाय जाओ। खाकर बर्तन माँज-धोकर राती के लिए भात चढ़ाय दो।’
हमारा दोपहर का खाना, दोपहर को ही निपट गया। सिर्फ़ जरी की माँ ही बच रही। सिर्फ़ जरी की मां के लिए ही यह नियम-सबको खिला-पिलाकर, बर्तन माँजने, घर-द्वार धोने-पोंछने और आँगन में झाड़ू लगाने के बाद ही उसे खाना नसीब होता था।
जरी की उम्र तक के बारे में सोचते हुए, उसकी माँ को आकाश की तरफ़ देखना पड़ता था। ललछौंहें आसमान भर में पंछियों का झुंड उड़ान भरते हुए, घोंसलों की तरफ़ जाता हुआ ! जरी की माँ का अपनी जरी को लेकर, कभी, किसी नीड़ की तरफ़ लौटना नहीं हुआ। जरी के जन्म के बाद से ही, इस-उस घर के बँधे कामकाज में बँधी पड़ी थी।
‘अउर कित्ता होवेगा ? यही कोई बारह ! क्यों, खाला, बारह की होवेगी न जरी की उमिर ?’ जरी की माँ ने असहाय नज़रों से अम्मी की तरफ़ देखा।
‘बारह ? का कहती हो, जी ? चौदह-पन्द्रह की लागत है।’
अम्मी को नहीं मालूम कि जरी कब पैदा हुई। अम्मी ने जरी की पैदाइश नहीं देखी। कुल दो साल पहले, जरी की माँ जरी को लेकर इस घर में आई थी। जरी की माँ को यहाँ टिकाकर, अम्मी, फाइ-फर्माइश पूरा करने के लिए, जरी को नानी के यहाँ दे आई थी। उम्र के बारे में अम्मी जी कहती थी, वह सिर्फ़ अंदाज़ से ! असल में, अम्मी बदन-काठी देखकर उम्र का अंदाज़ा लगाती थी। अम्मी का यह अंदाज़ा जरी की माँ ने ख़ुशी-ख़ुशी मान लिया। जरी की माँ ने समझ लिया, जरी की उम्र अब से चौदह-पन्द्रह और उसकी अपनी चालीस-बयालीस या पैंतालीस।
जरी की माँ, आँगन में बिखरे हुए झरे पत्ते, झरी डालें, झरे पंख इकट्ठे करके, पोखर किनारे के मलवे के ढेर में उड़ेल आई। जब वह बावर्चीखाने में कुप्पी जलाकर, भात और बैंगन की तरकारी खा रही थी, अम्मी बरामदे में बैठी-बैठी, उदास आँखों से बत्तख-मुर्गियों को दरबे में लौटते हुए देखती रही। अम्मी के पैरों के करीब, मैं सीढ़ी पर पैर फैलाए बैठी थी। सिर के ऊपर चक्राकार तूफानी हवा खाती हुई, सांध्योत्सव में नृत्यरत मच्छरों का संगीत और डॉली पाल के घर से तैरकर आती हुई उलू ध्वनि सुनते-सुनते, यह देखती रही कि किस तरह थकी-उदास किशोरी के भीगे बालों से टप्-टप् झरती बूँदों की तरह, आकाश से अँधेरा, हमारे बुहारे हुए कच्चे आँगन पर झर रहा था।
टिन के घर के पिछवाड़े, सागौन के पेड़ की तरफ़ टकटकी बाँधे देखते हुए, मैंने महीन आवाज़ में दरयाफ़्त किया, ‘इस सागौन के पेड़ की उम्र कितनी है, अम्मी ?’
बेहद अद्भुत नज़रों से उस पेड़ को देखते हुए, अम्मी ने जवाब दिया, ‘‘मेरे खियाल से तीन सौ बरिस !’
‘इंसान क्यों नहीं तीन सौ साल तक जिंदा रहता, अम्मी ?’
माँ ने कोई जवाब नहीं दिया।
मैं अम्मी की तरफ़ मुख़ातिब हुई। निःशब्द जल पर पड़ते हुए गांगचील की तरह, अम्मी का चेहरा, मुझे साफ़ नज़र नहीं आया। चमगादड़ के पंख की तरह, कोई अँधेरा उड़कर आया और उसने झटपट अम्मी का चेहरा ढँक लिया।
उम्र की यह फिक्र, मुझे छोड़कर, कभी एक क़दम भी टस-से-मस नहीं हुई। मैट्रिक के फॉर्म में भरी गई तारीख की तरह, अचानक मेरे मन में, अपने जन्मदिन की तारीख गढ़ लेने की चाह जाग उठी। शुक्र है कि उन दिनों अब्बू का मन-मिज़ाज़ ठीक था। इसलिए फर्माइश करने भर की देर थी, घर में एक केक, टोकरी भर मलाई-करी, एक पैकेट दालमोठ, एक पाउंड मीठे बिस्कुट, दर्जन भर सन्तरे मँगा लिए गए। शाम को जो लोग घर में मौजूद थे और अपने एकमात्र अनमोल धन के तौर पर, सिर्फ़ एक मेहमान, चंदना के सामने, फूँक मारकर, मैंने मोमबत्ती बुझाई। घर में छुरी नहीं थी, अब क्या करूँ ? बावर्चीखाने में काफी ढूँढ़-ढाँढ़कर, कुर्बानी की गाय काटनेवाला, लम्बा छुरा उठा लाई और एक पाउंड की केक काटी। केक का पहला टुकड़ा मेरे मुँह में कौन डालेगा, गीता या यास्मिन ? यास्मिन ने कहा, वह खिलाएगी; गीता ने कहा, वह खिलाएगी। गीता आगे बढ़ आई। चूँकि गीता इस ‘घर की बहू’ थी, इसलिए घर की बहू के साध-आह्लाद का मोल, यास्मिन के साध-आह्लाद से कहीं ज़्यादा था, यास्मिन मुँह फुलाकर केक के सामने से हट गई और कैमरे की रोशनी चमकने से पहले, अपने चेहरे पर मीठी-सी मुस्कान झुलाकर, गीता ने मेरे मुँह में केक का एक टुकड़ा ठूँस दिया। उसकी आँखें कैमरे पर ही लगी हुई थीं। इस तरह केक काटकर, ताली बजाकर, कैमरे की क्लिक ! और मलाई-करी की तरी में बिस्कुट डुबाकर, जुबान से केक की सफ़ेद क्रीम चाटते हुए, जन्मदिन सम्पन्न हुआ। इस घर में पहली बार किसी का जन्मदिन मनाया गया था, वह भी मेरा जन्मदिन। मेरी ही कोशिशों से।
चंदना ने उपहार में तीन काव्य-संग्रह दिए—‘राजा आए, राजा आए’, ‘अदिगंत नग्न पगध्वनि’ और ‘न प्रेमी, न विप्लवी।’ भाईजान ने रवीन्द्रनाथ का ‘गल्पगुच्छ’ दिया। जिन्दगी में पहली बार मुझे अपने जन्मदिन पर, कोई भेंट नसीब हुई। उन किताबों से न हाथ हट पा रहे थे, न आँखें, न मन !
काफी रात गए, अम्मी ने कहा, ‘मिठाई का एकाध टुकड़ा तोड़कर, जरी की माँ के हाथ पर भी धर देती तो भला होता। बिचारी ने कउनो दिन मिठाई नहीं खाई। बिचारी ऊ भी स्वाद चख लेती कि खाने में कइसी लागत है !’
अचानक मुझे ख्याल आया, सिर्फ़ जरी की माँ ही नहीं, अम्मी के हिस्से में भी जन्मदिन का खाना नहीं जुटा। हालाँकि अम्मी ने तसल्ली दी कि यह सब खाए बिना भी उसका काम चल जाता है।
कभी-कभार बिस्कुट का एक टुकड़ा या मुट्ठी-भर दालमोठ अम्मी की तरफ़ बढ़ाते ही, अम्मी कहतीं, ‘हम तो भात ही खावत हैं। तुम लोगन बाल-बच्चे हो, तुम्हीं लोग खाओ। चिरैया के बच्चे जइसे तो भात चुगते हो तुम सबन, सो थोड़ा-बहुत ई-ऊ खावे चाही।’
मुझे जन्मदिन मनाते देखकर, यास्मिन को भी अपना जन्मदिन मनाने का खासा शौक हो आया। उसका जन्मदिन किस महीने में, किस तारीख को हुआ था, यह जानने के लिए उसने अब्बू को पकड़ा। अब्बू भी उसे आज-कल पर टालते रहे, यास्मिन भी भूली रही। करीब दो महीने तक उसे भुलाए रखने के बाद, आखिर एक दिन अब्बू ने कह दिया—नौ सितंबर ! बस्स, सितंबर की नौ तारीख आने से पहले, यास्मीन ने अब्बू को एक लम्बी-सी फेहरिश्त भेज दी—तीन क़िस्म के फल और दो क़िस्म की मिठाइयाँ ! साथ में दालमोठ और बिस्कुट ! उसने स्कूल की प्रायः सभी लड़कियों को दावत दे डाली।
फेहरिश्त पाकर, अब्बू ने कहा, ‘‘जन्मदिन किस बात का ? जन्म दिन-टन्मदिन मनाने की कोई ज़रूरत नहीं। लिखाई-पढ़ाई करके, इंसान बनो। मेरे घर में किसी क़िस्म का उत्सव न मनाया जाए।’
अम्मी ने अकेले में, उनके सामने मिन्नतों की टोकरी उलटते हुए कहा, ‘बच्ची जन्मदिन मनाना चाहत है। मनाने दें न ! बेटियाँ घर की लछमी होत हैं। उनको ‘मार-मार’ कर रखना ठीक नाहीं है। आखिर उन सबन को भी तो शौक-चाव होत है। बिटिया ने फरमाइश की है ओकी फरमाइश रख लें।’
अम्मी ने इधर काफी दिनों से उन्हें ‘आप’ कहना शुरू कर दिया था। यह ‘तुम से ‘आप’ में उतरने-चढ़ने की ऐसी कई वजहें हैं, जिनकी वजह से अम्मी का यह संबोधन सुनकर, अब जैसे अब्बू को हैरत नहीं होती, हमें भी नहीं। लेकिन ‘तुम’ या ‘आप’ जैसे लघु या गुरु स्वर में, रोकर या हँसकर, अम्मी चाहे जितनी भी मिन्नतें क्यों न करें, उनकी मिन्नतों का मूल्य अब्बू के आगे रत्ती भर भी नहीं है। यह बात अब्बू भी बख़ूबी जानते थे और अम्मी भी !
‘आज से यह फुर्ती-टुर्ती बाद दो। बेटी नाच रही है, संग-संग गाय भी नचनिया बन गई है। फिजूल का बंदरिया-नाच।’
अब्बू की भृकुटी देखकर अम्मी सहम गईं। अब्बू की सर्दी खाई देह पर, लहसुन तेल से मालिश करते-करते, वे आरजू-मिन्नत में लगी रहीं।
‘बेटियाँ तो ब्याहकर, पराए घर चली जात हैं। उनका साध-आह्लाद बाप के घर ही तो पूरन होत है।’
लेकिन लहसुन तेल से अब्बू की खाल भले नरम हुई हो, मन नरम नहीं हुआ। यास्मिन भी मन अँधेरा किए बैठी रही। आखिरकार जन्मदिन का जश्न नहीं मनाया जा रहा था। लेकिन घरवालों को अचरज में डालते हुए, अब्बू ने उसी दिन दोपहर को फेहरिश्त मुताबिक खाना वगैरह भेज दिया। बेटी खुशी से नाच उठी। तश्तरी में खाना सजाकर, खुद सज-धजकर, वह काले फाटक की तरफ़ नज़रें गड़ाए, मेहमानों के इंतज़ार में, सारी शाम बैठी रही। जब कोई नहीं आया, तो यास्मिन ने आखिरकार, शाम को मैदान में खेलने आईं, गुल्लाछूट खेल की तीन सहेलियों को अपने यहाँ बुलाकर, जन्मदिन का खाना खिलाया।
शाम को घर लौटकर ऐसा लज़ीज़ खाना देखकर छोटे भइया दंग रह गए, ‘क्या, रे, किस बात का जशन है आज ?’
यास्मिन ने लजाधुर-सी मुस्कान बिखरेते हुए कहा, ‘मेरी सालगिरह है।’
‘किन्ने कहा, इस तारीख को तोरा जनम भया ?’
‘अब्बू ने कहा।’
अब्बू का नाम लेते ही, किसी की जुबान से ‘टूँ’ शब्द निकालने का भी हौसला नहीं हुआ, क्योंकि घरवाले जानते थे कि अब्बू जो कहते थे, वह पत्थर की लकीर होती थी ! बिल्कुल सच ! क्योंकि अब्बू से बढ़कर ज्ञान-बुद्धि और किसी के पास नहीं थी।
‘हाँ, हाँ, समझ गया। एक जन्मदिन की ज़रूरत होत है। सो तुझे भी जन्मदिन मनाने का शौक चर्राया और अब्बू ने भी गढ़कर बता दिया।
छोटे भइया का दुस्साहस देखकर यास्मिन सन्न रह गई।
उस दिन भी जिसके हिस्से में यास्मिन के जन्मदिन का एकाध टुकड़ा भी नहीं आया वह अम्मी थीं। अम्मी उस दिन दोपहर-बाद ही घर से निकल गईं, लौटते-लौटते शाम हो गई। उनके हाथ में बादामी कागज का एक पैकेट ! पैकेट के अंदर यास्मिन के लिए लाल रंग की फ्रॉक का कपड़ा। अम्मी खुद ही उसके लिए चुन्नटदार फ्रॉक तैयार कर देंगी। उनके हाथ में पैसे नहीं थे, इसलिए हाशिम मामू से रुपये उधार लेकर, वे ख़ुद गौरहरि वस्त्रालय गईं और तीन गज कपड़ा खरीद लाईं।
मैं हाय-हाय कर उठी, ‘लेकिन, आज तो उसका जन्मदिन नहीं है—
‘कउन बोला, आज ओका जन्मदिन नाही है ?’
‘छोटे भाईजान ने—’
‘इससे का भया ?’ अम्मी ने डपट दिया, ‘जन्मदिन न सही, ज़रा ख़ुशी मनाना चाहत है बिटिया, मनावन दो।’
ईद के त्यौहार के अलावा, और कभी हमें नई फ्रॉक नसीब नहीं हुई। साल में सिर्फ़ एक बार ही अब्बू हमारे लिए कपड़े लाते थे—वह थी—छोटी ईद ! छोटी ईद पर आए कपड़े अगला साल आते-आते तक या तो फट-फटा जाते थे या छोटे हो जाते थे।
अब्बू से नई फ्रॉक की फर्माइश करते ही, वे दाँत पीसकर चपट देते, ‘दो-दो फ्रॉक धरा है न ? एक पहना कर, जब मैली हो जाए; तो धो-फींचकर, दूसरी फ्रॉक पहन लिया कर। दो से ज़्यादा फ्रॉक की कोई ज़रूरत नहीं है।’
अम्मी हमारी फटी या छोटी हो आई फ्रॉक में, साड़ी की किनारी या कोई और टुकड़ा जोड़कर, बड़ी कर देतीं; फटी जगह सिलाई करके, दुरुस्त कर देतीं। स्कूल की लड़कियों के पास घर और बाहर पहनने के लिए, अलग-अलग, दो क़िस्म के कपड़े होते थे।
किसी दिन, किसी ईद की फ्रॉक, बाहर पहनने के लिए अगर सहेज कर रख दी जाती और घर में पहनने लायक फ्रॉक की माँग की जाती, तो अब्बू घुड़क देते, ‘बाहर जाने की तुमका ज़रूरत का है ? घर के बाहर अगर कहीं जाना है, तो बस, इस्कूल तक ! और इस्कूल के लिए यूनीफारम है न !’
स्कूल में अगर कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होता या पिकनिक पर जाना होता, तो लड़कियों को यह आज़ादी दी जाती थी कि वे यूनीफॉर्म की जगह, दूसरी फ्रॉक पहनकर जाएँ। लड़कियाँ उन कार्यक्रमों में तरह-तरह की पोशाकें पहनकर जाती थीं, लेकिन मैं हर कार्यक्रम में, बस, वही एक फ्रॉक पहनकर जाती थी।
मेरी क्लास की एक लड़की ने एक बार मुझसे सवाल भी किया, ‘तुम्हारे पास क्या और कोई फ्रॉक नहीं है ?’
उस दिन मुझे इतनी शर्म आई थी कि मैं दौड़कर, एक बड़े-से खम्भे की आड़ में काफी देर तक छिपी रही। स्कूल का यूनीफॉर्म बनाने के लिए अब्बू ने कभी मना नहीं किया। वे ख़ुद हमारे साथ गौरहरि वस्त्रालय जाकर कपड़े खरीदते थे; गांगिना किनारे के दर्जी की दुकान पर नाप दिलाने ले जाते थे। दर्जी जब बदन का नाप लिखता, वे दर्जी को बार-बार आगाह करते, यूनीफॉर्म ज़रा बड़ी माप का बनाएँ, ताकि ज़्यादा दिन तक चले।
जूते की दुकान पर भी अब्बू कहते, ‘इन लड़कियों के पैर के जूते तो दिखाएँ। जूते ज़रा बड़े हों, जो ज़्यादा दिन चलें।’
नाप से बड़े-बड़े कपड़े-जूते पहनने के बावजूद, हमारे कपड़े-जूते बहुत जल्दी ही छोटे हो जाते।
अम्मी कहती थीं, ‘फिराक मा जूता छोटा नहीं होता, तू लोगन हुंड़ार हुई जा रही है।’
हमारा तन-बदन चूँकि बढ़ने लगा था, मुझे हर वक्त डर लगा रहता था, अब्बू खफ़ा होंगे। ढाका विश्वविद्यालय में पढ़ाई के जमाने में, भाईजान ने अपने जेब-खर्च के रुपए बचाकर, मेरे और यास्मिन के लिए दो रेशमी फ्रॉकें खरीद दी थीं। फुटपाथ से खरीदी हुई विदेशी, पुरानी फ्रॉक ! ‘लॉन्डि’ का सस्ता माल। वह पाकर भी, हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था।
अम्मी का खरीदा हुआ लाल कपड़ा, बदन पर लपेटकर, यास्मिन जब महा-उल्लास से घर-भर में नाचती-कूदती फिरी, अम्मी अँधेरे बरामदे में अपने बाल छितराए, कमरे की उजली-रोशनी में लाल, सुर्ख यास्मिन को निहारती रहीं। लाल फ्रॉक में वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी।
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